भारत आरसीईपी में शामिल होता तो आखिर किसे होता नुकसान?

 07 Nov 2019 ( न्यूज़ ब्यूरो )
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आरसीईपी में शामिल नहीं होने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ़ैसले की तारीफ़ और आलोचना दोनों हो रही है, लेकिन मोदी ने आरसीईपी में शामिल होने से मना करके किसका भला किया? यह जानना जरूरी है।

आरसीईपी के मामले में भारत में सरकार और सरकारी एजेंसियों के बर्ताव से तो यही लगता है कि उन्हें यह मामला समझ में नहीं आ रहा है।

भारत में खेती ऐसा मामला है जिसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। कब कौन सी फसल अच्छी होगी, और कब ख़राब होगी? कब किसके दाम अच्छे मिलेंगे? और कब अच्छी फसल वरदान की जगह अभिशाप साबित होगी? कहना मुश्किल है?

ये सवाल पहले ही देश भर के कृषि विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों को चक्कर में डालने के लिए काफी थे। उसके ऊपर अब सवाल ये है कि अगर चीन से सस्ते सामान के साथ ही ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से फल, सब्जी, दूध और दही जैसी चीजें भी आने लगीं तो भारत के किसानों, बागवानों और पशुपालकों का क्या होगा?

सवाल तो बहुत अच्छा है। मगर भारत के बाज़ारों में ऑस्ट्रेलिया के तरबूज, कैलिफ़ोर्निया के सेब और न्यूजीलैंड की किवी, अंगूर और संतरे भरे पड़े हैं। थाईलैंड के ड्रैगन फ्रूट, केले और अमरूद भी हैं। अब ये सब अगर बाज़ार में हैं तो नया क्या आने वाला है?

ओपन जनरल लाइसेंस के तहत इंपोर्ट होने वाली चीजों की लिस्ट पर नज़र डालिये, सब पता चल जाएगा। दरअसल, अब लिस्ट है ही नहीं। एक नेगेटिव लिस्ट है जिसमें शामिल चीजों पर या तो रोक है या उनके लिए अलग से इजाज़त चाहिए। बाकी सबका इंपोर्ट खुला हुआ है।

किसानों का हाल देखिए। प्याज का दाम इस वक्त सौ रुपए किलो के आसपास पहुंच रहा है। ऐसा मौका एक साल में या दो सालों में आता है जब किसान को प्याज की बहुत अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद जागती है। लेकिन ऐसा होते ही सरकार को महंगाई की चिंता सताने लगती है और वो प्याज का मिनिमम एक्सपोर्ट प्राइस (एमईपी) तय कर देती है।

इसका असर किसान का प्याज विदेशी बाज़ारों में जा नहीं पाता जहां उस वक्त शायद मांग होती है और भारत में दाम काबू करने की कोशिश में किसान की बलि चढ़ा दी जाती है।

एकदम यही हाल गन्ने के किसान का होता है। वैसे तो समर्थन मूल्य हर बड़ी फसल पर तय है मगर ये मूल्य समर्थन कम, विरोध ज़्यादा करता है।

अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में चीनी की मांग बढ़ने पर सरकार की तरफ से पाबंदियां लगने लगती हैं। यहां भी वही सवाल है। क्या आप चीनी के बिना रह नहीं सकते? और इतनी ज़रूरी है तो ज़्यादा दाम क्यों नहीं दे सकते?

भारत में प्याज और चीनी के दामों पर सरकार गिर जाती हैं इसलिए सरकार जी-तोड़ कोशिश में रहती है कि ये चीज़ें महंगी न हो जाएं। और इस चक्कर में पिस रहे हैं वो किसान जिनके हितों की रक्षा के लिए भारत ने आरसीईपी समझौते पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया।

भारत में केंद्र सरकार के रोज बदलते सुर तो सामने ही दिख रहे हैं।  भारत के केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल पहले आरसीईपी के समर्थन में तर्क देते थे। फिर प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि समझौते पर दस्तखत करना उनकी अंतरात्मा को गवारा नहीं।

अब पीयूष गोयल फिर कह रहे हैं कि अच्छा ऑफ़र मिला तो अभी समझौते पर दस्तखत हो सकते हैं। दूसरी तरफ, वो ये भी कह रहे हैं कि भारत अब अमरीका और यूरोपीय यूनियन के साथ फ्री-ट्रेड (बेरोक-टोक कारोबार) के समझौते पर विचार कर रहा है।

बरसों से भारत ऐसे किसी विचार के विरोध में रहा है। दूसरे मंत्रियों से पूछिए तो वो अपने अपने तर्क दे देंगे। संघ परिवार ने स्वदेशी जागरण के नाम पर समझौते के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा है। ये भी सरकार के गले की हड्डी है। लेकिन ये याद रखना ज़रूरी है कि यही स्वदेशी जागरण मंच पिछले तीस पैंतीस साल से भारत में विदेशी निवेश की हर कोशिश के ख़िलाफ़ खड़ा रहा है।

और विरोध करने वालों के तर्क देखें। न्यूजीलैंड से सस्ता दूध आ जाएगा।

उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने कहा कि, "न्यूजीलैंड वाले ग्यारह-बारह रुपये लीटर दूध बेचेंगे, हमारा डेरी कोऑपरेटिव तो चालीस रुपये में ख़रीदता है, कैसे चलेगा?"

लेकिन क्या यह सच है?

गूगल पर सर्च करने पर पता चला कि न्यूजीलैंड में एक लीटर दूध का रिटेल भाव दो डॉलर के आस-पास था और न्यूजीलैंड का एक डॉलर करीब पैंतालीस रुपये का होता है। अब आप खुद सोचिए कि वो कितना सस्ता दूध या पनीर भारत में बेचेंगे।

मजे की बात ये है कि समझौते का विरोध करने में कांग्रेस भी शामिल है और किसान मजदूर संगठन भी। कोई समझाए कि आर्थिक सुधार आने के बाद भारत में नौकरीपेशा लोगों की ज़िंदगी सुधरी है या बदतर हुई है।

आरसीईपी में अगर भारत शामिल होता तो आखिर किसे होता नुकसान? मज़दूरों की हालत में सुधार है कि नहीं है। और फसल का दाम बढ़ेगा तो किसान को फायदा होगा या नुकसान?

तो नुकसान किसको होगा? उन बिचौलियों को जो किसानों का ख़ून चूसते रहे हैं। उन सरकारी अफसरों, नेताओं और मंडी के कारकुनों को जिन्होंने फसल और बाज़ार के बीच का पूरा रास्ता कब्जा कर रखा है। उन व्यापारियों और उद्योगपतियों को जो मुक़ाबले में खड़े होने से डरते हैं क्योंकि उनका मुनाफा मारा जाएगा और उनके यहां काम करने वाले अच्छे लोग दूसरी कंपनियों में जा सकते हैं, दूसरी दुकानों में जा सकते हैं।

ये दूसरी कंपनियां, दूसरी दुकानें कौन हैं? यहीं हैं जिन्हें आरसीईपी के बाद भारत में माल बेचने या काम करने की छूट मिलेगी। अगर उपभोक्ता को सस्ता और अच्छा सामान मिलता है, कामगार को अच्छी तनख्वाह मिलती है और किसान को फसल का बेहतर दाम और बड़ा बाज़ार मिलता है, तो किसे एतराज है? क्यों एतराज है? समझना मुश्किल है क्या?

शामिल नहीं हुए तो किसका होगा नुकसान?

अगर 80 और 90 के दशक में भारत सरकार इसी तरह हिचक दिखाती तो आज हमारे बाज़ार में मौजूद आधे से ज़्यादा चीजें भी नहीं होतीं और देश में आधे से ज़्यादा रोज़गार भी नहीं होते।

फ़ैसले के मौकों पर हिम्मत दिखानी पड़ती है। किसी के हितों की रक्षा से ज्यादा जरूरी है एक देश के तौर पर आत्मविश्वास दिखाना।

 

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