अज़रबैजान-आर्मीनिया समझौता: नागोर्नो-काराबाख़ में रूस के शांति सेना भेजने से क्या बदलेगा?

 12 Nov 2020 ( न्यूज़ ब्यूरो )
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आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच विवादित नागोर्नो-काराबाख़ इलाक़े में 27 सितंबर 2020 से लड़ाई की शुरुआत हुई थी।

इस लड़ाई में अज़रबैजान को साफ़ तौर पर आर्मीनिया पर जीत मिलती दिख रही थी।

हाल ही में अज़रबैजान की सेना ने नागोर्नो-काराबाख़ के शुशा (इसे आर्मीनिया में शुशी कहा जाता है) शहर पर कब्ज़ा कर लिया था। इसे एक बड़ी रणनीतिक जीत बताया जा रहा था।

इसके बाद अज़रबैजान की नज़र काराबाख़ की राजधानी स्तेप्नाकियर्त पर थी।

इस लड़ाई में कई लोगों की जान गई और कई इलाक़ों को बड़े स्तर पर नुक़सान पहुंचा है। लेकिन, शुशा पर नियंत्रण के बाद अज़रबैजान को राजधानी पर कब्ज़े की लड़ाई में ज़रूर बढ़त मिली थी।  

ये इलाक़ा ऊंचाई पर है जिस वजह से काराबाख़ में मौजूद आर्मीनिया की सेना आसानी से अज़रबैजान को गोला-बारूद का निशाना बना सकती थी।

लेकिन, इस बीच रूस ने दख़ल दिया और दोनों देशों के बीच शांति समझौता कराया और स्तेप्नाकियर्त में शांति सेना भेज दी।  

तुर्की नहीं, रूस का नियंत्रण

इससे पहले सभी को लगता था कि तुर्की अज़रबैजान को खुला समर्थन देकर इस खेल को नियंत्रित कर रहा है।

रूस की इस पहल की शुरुआत 9 नवंबर 2020 की रात से हुई जब आर्मीनिया, अज़रबैजान और रूस के नेताओं की ऑनलाइन मुलाक़ात हुई और उन्होंने नागोर्नो-काराबाख़ में संघर्ष ख़त्म करने के लिए एक नौ सूत्री समझौते पर बात की।

अज़रबैजान इस लड़ाई को जीत रहा था क्योंकि उसने 1994 से आर्मीनिया के नियंत्रण वाले कई अज़ेरी प्रांतों को वापस ले लिया था।

तीनों नेताओं ने इस बात पर सहमति जताई कि आर्मीनिया की सेना नागोर्नो-काराबाख़ के आसपास बचे हुए कब्ज़े वाले इलाक़ों से पीछे हट जाएगी। इन पर अज़रबैजान का नियंत्रण हो जाएगा।

शांति सेना क्या करेगी?

रूस की शांति सेना दोनों पक्षों की सेना को अलग-अलग करेगी और ये सुनिश्चित करेगी कि दुबारा लड़ाई शुरू ना हो।

रूसी सेना नागोर्नो-काराबाख़ के आर्मीनेयाई लोगों को मुख्य आर्मीनिया से जोड़ने वाले पांच किलोमीटर चौड़े गलियारे को भी सुरक्षित करेगी।

सोवियत संघ के विघटन के बाद दोनों देशों के बीच बढ़ती राष्ट्रीय पहचान ही नागोर्नो-काराबाख़ की लड़ाई की वजह बनी।

अज़रबैजान और आर्मीनिया, दोनों स्वतंत्र देशों ने तब लड़ने के लिए सोवियत सेना के छोड़े गए हथियारों का इस्तेमाल किया।

उस लड़ाई में आर्मीनिया सफल रहा था। 1994 के अंत तक उसने नागोर्नो-काराबाख़ और उसके आसपास के अज़रबैजान के सात इलाक़ों पर नियंत्रण पा लिया था।

जब दोनों तरफ़ से एक-दूसरे देशों के लोगों को निकाला जाना शुरू हुआ तो करीब एक लाख लोग शरणार्थी बन गए।

अज़रबैजान की बढ़ती ताकत

दोनों देशों के बीच हमेशा तनाव बना रहा है। बीच-बीच में छिटपुट झड़प भी होते रहे लेकिन, 27 सितंबर 2020 को अज़रबैजान ने अपने खोये हुए इलाक़ों को वापस लेने के लिए युद्ध की शुरुआत कर दी।

ये बहुत जल्दी साफ हो गया कि दोनों देशों के बीच सैन्य ताकत का संतुलन बदल चुका है।

कैस्पियन सागर में मिले तेल और गैस के स्रोत अज़रबैजान के लिए वरदान बनकर आए और इस तेल व गैस बेचकर अज़रबैजान ने खूब पैसा कमाया।

अज़रबैजान ने इन पैसों का इस्तेमाल अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के लिए किया और कुछ लोग राजधानी 'बाकू' को 'कैस्पियन का दुबाई' कहने लगे।

लेकिन, अज़रबैजान की सरकार ने अपनी सेना को मजबूत करने में भी बड़े स्तर पर पैसा झोंका।

उन्होंने पिछले कई सालों में बेहतर टैंक, गोला-बारूद और खासतौर पर नई तकनीक ख़रीदने में अरबों डॉलर खर्च किए।

अज़रबैजान पूर्व सोवियत संघ का ऐसा पहला देश है जिसने युद्ध में बड़े स्तर पर ड्रोन तकनीक का इस्तेमाल किया है।

27 सितंबर 2020 को युद्ध प्रारंभ होने के शुरुआती दिनों में अज़रबैजान ने सबसे पहले आर्मीनिया के एयर डिफेन्स सिस्टम को ख़त्म किया और उसके बाद आर्मीनियाई सेना को बाहर निकालने, हथियारों और कर्मियों को निशाना बनाने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया।

सेना तैनात करके रूस अब ज़मीन पर पूरी तरह स्थिति को नियंत्रित कर रहा है। इस सेना में 2000 पैराट्रूपर्स हैं।

आर्मीनिया, अज़रबैजान और तुर्की की सेना कुछ भी ऐसा नहीं कर सकतीं जिससे रूस के सैनिकों की ज़िंदगी ख़तरे में आ जाए।

रूस ने पहले दख़ल क्यों नहीं दिया?  

आर्मीनिया के प्रधानमंत्री निकोल पाशिन्यान और व्लादिमीर पुतिन के बीच बहुत अच्छे संबंध नहीं हैं।

पाशिन्यान एक सफल और लोकप्रिय नेता हैं। वो सत्ता परिवर्तन के लिए हुई क्रांति के बाद आर्मीनिया के प्रधानमंत्री बने थे। व्लादिमीर पुतिन सरकार इस तरह के बदलाव को पश्चिम समर्थित मानते हैं।

पाशिन्यान ने आर्मीनिया की रूस पर बहुत ज़्यादा निर्भरता का विरोध किया और पश्चिमी देशों से करीबी बढ़ाई।

अज़रबैजान से इस बड़ी हार के बाद उनका राजनीतिक भविष्य संदेह के घेरे में दिख रहा है। यहां तक कि आर्मीनिया के राष्ट्रपति ने समझौते की पूरी जानकारी होने से इनकार किया है।

लेकिन, अब समझौता हो चुका है और रूस ने पूरी स्थिति को अपने नियंत्रण में ले लिया है।

रूस दोनों तरफ संतुलन बनाकर रखना चाहता है। वह आर्मीनिया को इस सुरक्षा समझौते से बांधकर रखना चाहता है लेकिन साथ ही उस पर हमले भी रोकना चाहता है। रूस का अज़रबैजान से भी अच्छा सम्बन्ध है।

अज़रबैजान के लिए बड़ी जीत

यह अज़रबैजान के लिए बड़ी जीत है। सड़कों पर  लोग जीत की खुशी मना रहे हैं।

इस जीत में अज़रबैजान ने ना सिर्फ़ अपने इलाक़े वापस लिए हैं बल्कि इससे 30 सालों से अपने घर लौटने का इंतज़ार कर रहे अज़रबैजान के लाखों शरणार्थियों का इंतज़ार भी ख़त्म हो गया है।

आर्मीनिया में इसे लेकर नाराज़गी है कि नुक़सान कम करने के लिए रूस को पहले ही इस तरह दख़ल देना चाहिए था। हालांकि, वो ये भी समझते हैं कि अगर अब लड़ाई और खिंचती तो नागोर्नो काराबाख़ में कोई भी आर्मीनियाई नहीं बचता।

इस शांति समझौते में ये भी दिख रहा है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ इससे पूरी तरह बाहर हैं।

नागोर्नो-काराबाख़ पर आर्मीनिया का कब्ज़ा 1 दिसंबर 2020 तक ख़त्म हो जायेगा। इन पर अज़रबैजान का नियंत्रण हो जाएगा। इस युद्ध का सबसे ज़्यादा खामियाज़ा यहां रहे आर्मीनियाई लोगों को उठाना पड़ेगा।

ये अच्छी ख़बर है कि अब और सैनिक व आम लोग नहीं मारे जाएंगे। साथ ही शरणार्थी बन चुके अज़ेरी लोग अपने घर वापस लौट सकेंगे।

लेकिन, नागोर्नो-काराबाख़ की वर्तमान या भविष्य की स्थिति, इसकी प्रशासनिक या क़ानूनी या पुलिस व्यवस्था को लेकर कोई संकेत नहीं मिलते हैं। यह एक स्वघोषित गणराज्य रहा है जिसे कोई मान्यता नहीं देता।

नागोर्नो-काराबाख़ पर निश्चित तौर पर अब अज़रबैजान का नियंत्रण होगा।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि वो दो देश जिनकी एक-दूसरे के लिए नफ़रत पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है वो अब एक-दूसरे के पहले से ज़्यादा करीब कैसे रहेंगे?

ये युद्ध, इसमें हुई हिंसा और बहाए गए खून को देखते हुए डर है कि इन दोनों पड़ोसियों को पड़ोसी की तरह रहने में कई साल लग जाएंगे।

 

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