भारत में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) पर बिना सुनवाई के रोक नहीं लगाई जा सकती।
देशभर में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों के बीच सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ और समर्थन में दायर 144 से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई हुई।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चार हफ़्ते बाद ही इस मामले पर कोई अंतरिम राहत दी जा सकती है। किसी भी हाई कोर्ट में सीएए से जुड़ा कोई मामला नहीं सुना जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को चार हफ़्ते में जवाब दाखिल करने के कहा गया है। बिना केंद्र को सुने सुप्रीम कोर्ट ने सीएए पर रोक लगाने से फ़िलहाल इनकार किया।
जब इस मामले पर सुनवाई शुरू हुई तो अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कोर्ट में भीड़ को लेकर शिकायत की।
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस एस ए बोबड़े से कहा कि माहौल शांत रहना चाहिए, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट में। उन्होंने कहा कि कोर्ट को यह आदेश देना चाहिए कि सुनवाई के लिए कौन आ सकता है, इसे लेकर कुछ नियम बनाए जाने चाहिए। सिब्बल ने भी इसी तरह की चिंता जाहिर की।
चीफ़ जस्टिस ने कहा कि वो कोर्ट में भारी भीड़ को लेकर कुछ कर रहे हैं। अटॉर्नी जनरल ने कहा कि अमरीका में सुप्रीम कोर्ट और पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट में कोर्ट रूम में विजिटर्स के आने को लेकर कुछ नियम हैं।
सिब्बल ने कहा कि कोर्ट को यह सुनिश्चित करना है कि क्या इस मामले को संवैधानिक पीठ को भेजा जाना है। नागरिकता एक बार दिये जाने के बाद वापस नहीं ली जा सकती।
सिंघवी ने कहा कि कोर्ट को संवैधानिक पीठ गठित करने पर विचार करना चाहिए और राज्यों ने इस क़ानून को अमल में लाना शुरू कर दिया।
ए जी वेणुगोपाल ने कहा कि सीएए में दी गई नागरिकता को वापस लेने के लिए प्रावधान है।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश, तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, असदुद्दीन ओवैसी, समेत कई अन्य लोगों और संगठनों ने ये याचिका दायर की हैं।
9 जनवरी को अदालत ने नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान हो रही हिंसक घटनाओं पर नाराज़गी जताते हुए कहा था कि इस मामले से जुड़ी सभी याचिकाओं पर सुनवाई तभी होगी जब हिंसक घटनाएं बंद हो जाएंगी।
इन याचिकाओं पर मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता में जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस संजीव खन्ना की तीन सदस्यीय पीठ ने नौ जनवरी को सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था।
बीते वर्ष दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंसा के बाद 18 दिसंबर को इस संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाख़िल की गई थीं। तब सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं पर फ़ौरन सुनवाई करने से मना कर दिया था और इसके लिए 22 जनवरी की तारीख़ तय की थी।
कोर्ट ने साथ ही इस क़ानून पर रोक लगाने से इनकार भी कर दिया था। हालांकि उसने इसकी समीक्षा करने का फ़ैसला किया था।
इस क़ानून का विरोध करने वालों का कहना है कि मुसलमानों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है जो भारतीय संविधान का उल्लंघन है।
ज्यादातर याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह क़ानून भारत के पड़ोसी देशों से हिंदू, बौद्ध, ईसाई, पारसी, सिख और जैन समुदाय के सताए हुए लोगों को नागरिकता देने की बात करता है, लेकिन इसमें जानबूझकर मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया है। संविधान इस तरह के भेदभाव करने की इजाज़त नहीं देता।
याचिकाकर्ताओं ने इस क़ानून को संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ और विभाजनकारी बताते हुए रद्द करने का आग्रह किया है।
जहां एक तरफ ज़्यादातर याचिकाओं में नागरिकता संशोधन क़ानून की वैधता को चुनौती दी गई है, वहीं कुछ याचिकाओं में इस क़ानून को संवैधानिक घोषित करने की मांग की गई है।
नागरिकता संशोधन क़ानून में पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 तक आए हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई, जैन और पारसियों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है।
इस मुद्दे पर विपक्ष के साथ साथ कई संगठन भी विरोध कर रहे हैं। साथ ही इसे संविधान विरोधी करार दिया जा रहा है।
इस सुनवाई से पहले सुप्रीम कोर्ट के बाहर कुछ महिलाओं ने नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध भी किया।
मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के बाहर कुछ महिलाएं पोस्टर, बैनर लेकर पहुंचीं। हालांकि, कुछ समय के बाद उन्हें वहां से हटा दिया गया था।
दिल्ली के शाहीन बाग में इस क़ानून के ख़िलाफ़ बीते 38 दिनों से महिलाएं धरना दे रही हैं। वहीं समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक पूर्वोत्तर के कई यूनिवर्सिटी इस क़ानून के विरोध में बंद हैं।
12 दिसंबर 2019 को नागरिकता संशोधन बिल को क़ानून के तौर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मंजूरी दे दी थी।
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