बीते चार दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत का कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है।
इसकी वजह क्या कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाया गया लॉकडाउन ही है?
पर्यावरण वेबसाइट कार्बन ब्रीफ़ की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में लॉकडाउन लागू होने से पहले ही बिजली की खपत कम होने की वजह से और अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ने से ईंधन की मांग कम हो गई थी।
फिर मार्च में लागू लॉकडाउन ने बीते सैंतीस सालों में पहली बार भारत में कार्बन उत्सर्जन की बढ़त के ट्रेंड को पलट दिया।
शोध के मुताबिक़ मार्च में भारत का कार्बन उत्सर्जन 15 प्रतिशत कम हुआ है और अप्रैल में तीस प्रतिशत कम होने की उम्मीद (अभी इसके आंकड़े आना बाक़ी है) ज़ाहिर की गई है। यानि दो महीने में कार्बन उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी हुई है।
बिजली की माँग में जो भी कमी हुई है उससे कोयला आधारित जेनरेटर ही प्रभावित हुए हैं। और यही शायद कार्बन उत्सर्जन कम होने की वजह भी है।
कोयले से होने वाला बिजली उत्पादन मार्च में 15 प्रतिशत और अप्रैल के पहले तीन सप्ताह में 31 प्रतिशत कम हुआ।
लेकिन लॉकडाउन से पहले ही कोयले की माँग कम होने लगी थी।
शोध के मुताबिक़ मार्च 2020 में समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में कोयले की बिक्री दो प्रतिशत कम हुई थी।
यूं तो ये आंकड़ा कम है लेकिन जब इसे बीते वर्षों की तुलना में देखा जाए तो ये काफ़ी बड़ा लगता है।
बीते एक दशक में हर साल कोयले से बिजली के उत्पादन में प्रति वर्ष 7.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी।
भारत में तेल की खपत में भी इसी तरह की कमी नज़र आती है।
साल 2019 की शुरुआत से ही इसकी ईंधन खपत की रफ़्तार धीमी होने लगी थी।
और इसमें भी कोविड-19 की वजह से लागू लॉकडाउन का असर स्पष्ट है।
मार्च में तेल की खपत में बीते साल के मुक़ाबले 18 प्रतिशत की गिरावट आई।
इसी बीच अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली की आपूर्ति बढ़ी है और लॉकडाउन के दौरान स्थिर रही है।
हालांकि लॉकडउन की वजह से माँग में कमी के बावजूद अक्षय ऊर्जा स्रोतों के उत्पादन के स्थिर रहने का ये ट्रेंड भारत तक ही सीमित नहीं है।
इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी (आईईए) की ओर से अप्रैल के अंत में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक़ दुनियाभर में कोयले की खपत 8 प्रतिशत कम हुई है।
वहीं सौर और वायु ऊर्जा की माँग दुनियाभर में बढ़ी है।
बिजली की माँग में कमी का असर कोयले से होने वाले बिजली उत्पादन पर पड़ने की एक वजह ये भी है कि रोज़मर्रा में कोयले से बिजली उत्पादन महंगा पड़ता है।
वहीं एक बार सौर पैनल या विंड टरबाइन लगने के बाद उसे संचालित करने का ख़र्च कम होता है, और इसी वजह से इन्हें इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड में प्राथमिकता दी जाती है।
वहीं तेल, गैस या कोयले से संचालित होने वाले थर्मल पॉवर प्लांट के लिए ईंधन ख़रीदना होता है।
हालांकि विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि जीवाश्म ईंधन की खपत में कमी हमेशा नहीं रहेगी।
विशेषज्ञ कहते हैं कि लॉकडाउन हटने के बाद देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से चलाने की कोशिश करेंगे और थर्मल पॉवर की खपत बढ़ जाएगी और कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा।
अमरीका ने पर्यावरण नियमों में ढील देनी शुरू कर दी है और डर ये है कि दुनिया के बाक़ी देश भी ऐसा ही कर सकते हैं।
हालांकि कार्बन ब्रीफ़ के विश्लेषक मानते हैं कि भारत शायद ऐसा न करे और इसके कारण भी हैं।
कोरोना वायरस महामारी ने भारत के कोयला सेक्टर में लंबे समय से चले आ रहे संकट को फिर रेखांकित किया है।
और भारत सरकार 90 हज़ार करोड़ रुपए का पैकेज तैयार कर रही है।
लेकिन भारत सरकार अक्षय ऊर्जा सेक्टर की मदद करने पर भी विचार कर रही है।
भारत में अक्षय ऊर्जा कोयले के मुक़ाबले काफ़ी सस्ती है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सौर ऊर्जा पर 2.55 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है जबकि कोयले से उत्पादन होने वाली बिजली पर औसतन 3.38 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है।
स्वच्छ ऊर्जा में निवेश भारत के राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम के लिए मुफ़ीद भी है। ये कार्यक्रम साल 2019 में शुरू किया गया था।
पर्यावरणविदों का ये भी मानना है कि लॉकडाउन में साफ़ हुई हवा और आसमान देख रहे भारतीय सरकार पर वायु प्रदूषण कम करने और स्वच्छ ऊर्जा में निवेश करने के लिए दबाव बनाएंगे।
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